“बिना संन्यास के शिष्यत्व संभव नहीं !” – ओशो
भगवान, क्या मैं बिना संन्यास के आपका शिष्य नहीं हो सकता हूं?
नारायण तिवारी, विद्यार्थी हो सकते हो, शिष्य नहीं हो सकते हो। और विद्यार्थी और शिष्य में उतना ही अंतर है, जितना कवि में और ऋषि में। उससे कम नहीं। विद्यार्थी का मतलब है; जो कुछ सूचनाएं लेकर चला जाएगा। जो थोड़ा-सा ज्ञान का कचरा इकट्ठा कर लेगा। जिसकी स्मृति थोड़ी और भर जाएगी। जो कुछ और अच्छी-अच्छी बातें दोहराना सीख लेगा। शिष्य नहीं हो सकते हो बिना संन्यस्त हुए। क्योंकि शिष्य की पहली शर्त हैः कुतूहल को छोड़ना। कुतूहल को ही नहीं छोड़ना, जिज्ञासा को भी छोड़ना। मुमुक्षा को धारण करना।
मुमुक्षा क्या है?
कुतूहल बचकानी चीज है, छोटे-छोटे बच्चों में होता है, पूछे ही चले जाते हैं- ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? खोपड़ी खा जाते हैं। जिसके पीछे पड़ जाएं, उसकी मुसीबत खड़ी कर देते हैं। क्योंकि एक प्रश्न खत्म नहीं होता कि वे दूसरा प्रश्न खड़ा कर देते हैं। उनको सुनने की कोई बहुत इच्छा भी नहीं होती कि प्रश्न का तुम उत्तर दो, वे तुम्हारे उत्तर को सुनने भी नहीं, उनको मजा पूछने का होता है। वह पूछे ही चले जाते हैं। तुमने क्या उत्तर दिया, इससे भी प्रयोजन नहीं है। तुमने दिया या नहीं, इससे भी प्रयोजन नहीं है। तुम जब उत्तर दे रहे हो तब वे दूसरा प्रश्न तैयार कर रहे हैं। पफुर्सत किसको है तुम्हारे उत्तर सुनने की? कुतूहल बचकानी चीज है।
जिज्ञासा व्यक्ति को विद्यार्थी बनाती है। विद्यार्थी का मतलब यह है, मैं अपने को बदलने को राजी नहीं हूं, लेकिन हां, कुछ ज्ञान की बातें अगर मिल जाएं तो जरूर संगृहीत कर लूंगा, संजो कर रख लूंगा अपनी मंजूषा में। वक्त पड़े शायद काम आएं। और अपने काम न आयीं तो कोई हर्ज नहीं, दूसरों को सलाह देने के काम आएंगी। इस तरह पंडित पैदा होता है। पंडित विद्यार्थी का चरम निष्कर्ष है।
मुमुक्षा का अर्थ हैः जानकारी से क्या करूंगा? जीवन चाहिए! अनुभव चाहिए! नहीं जानना चाहता हूं परमात्मा के संबंध में, परमात्मा को ही पीना चाहता हूं। बिना पीये यह नहीं हो सकता है। और पीने के लिए, नदी बह रही हो और तुम प्यासे अगर खड़े रहो तट पर तो भी प्यास नहीं बुझेगी। तुम नदी के तट पर खड़े होकर सोच-विचार करते रहो कि पानी कैसे बनता है, इसका रासायनिक पफार्मूला क्या है “H2O” तो भी प्यास नहीं बुझेगी। तुम्हें नदी में उतरना पड़ेगा। उत्तर जानने से भी प्यास नहीं बुझेगी, तुम्हें दोनों हाथों को बांधकर अंजुली बनानी होगी। अंजुली बना लेने से भी प्यास नहीं बुझेगी, तुम्हें पिफर झुकना होगा ताकि तुम अपनी अंजुली में नदी के जल को भर सको। बिना झुके तुम अंजुली को भर न पाओगे। और झुकोगे तो पी सकोगे। और पीओगे तो तृप्ति है।
संन्यास का कुछ और अर्थ नहीं है। झुकना! समर्पण! अंजुली बांधना! प्रेम से पीने की तैयारी!
यह राज समझ में न आएगा। तुम बचना चाहते हो, नारायणदास तिवारी, कि कहीं कांटे न चुभ जाएं। कहीं दामन में कुछ न चुभ जाएं। मगर बिना कांटे चुभे कुछ समझ में आने वाला नहीं। उतना साहस तो करना ही होगा। मिटने की तैयारी है संन्यास।
ऐ पफना इश्क में मिट के तूने
कर दिया हुस्न का नाम रोशन
संन्यास मृत्यु है अहंकार की। और जहां अहंकार मरा, वहां एक नये जन्म की शुरुआत है, एक नये जीवन का प्रारंभ है। संन्यास है द्विज बनने की प्रक्रिया, दुबारा जन्म लेने की प्रक्रिया। और तुम पूछते हो, भगवान, क्या मैं बिना संन्यास के आपका शिष्य नहीं हो सकता हूं? विद्यार्थी हो सकते हो, शिष्य नहीं हो सकते हो! और तुम विद्यार्थी रहे, तो मैं शिक्षक रह जाऊंगा तुम्हारे लिए। तुम्हारे लिए शिक्षक रह जाऊंगा। तुम शिष्य हुए, तो तुम्हारे लिए मैं गुरु हूं। तुम जितने करीब आओगे, उतना ही तुम मुझे समझ पाओगे। संन्यास बिना लिये तुम दूर-दूर खड़े रहोगे, किनारे-किनारे, पानी में उतरोगे ही नहीं। तो दूर-दूर से देख सकते हो, सुन सकते हो, कुछ शब्द इकट्ठे कर लोगे, मगर इससे कुछ बात बनेगी नहीं। इससे कुछ जीवन में मुक्ति का द्वार खुलेगा नहीं। संन्यस्त हुए बिना कोई मार्ग नहीं है।
मगर ख्याल रख लेना, संन्यास का मतलब क्या होता है? इतना ही मतलब होता है कि तुम झुकने को तैयार हो; तुम मिटने को तैयार हो; तुम दांव पर सब लगाने को तैयार हो। यह जुआरी का रास्ता है। यह शराबी का रास्ता है। यह कमजोरों के लिए नहीं है। यह सिपर्फ हिम्मतवरों के लिए है। यह उनके लिए है जिनके पास छाती है।
– ओशो
दीपक बारा नाम का 3,
Sadguru ko naman..
Paramguru ko koti koti prnam.
Sad guru trivir ko pranam.